Thursday, May 14, 2009

प्रश्न: जिन्होंने नाम नहीं लिया है वे तो इष्टभृति नहीं करते होंगे. जिन्होंने कहीं भी दीक्षा नहीं ली है वे भी तो विपत्ति में रक्षा पाते हैं.

श्रीश्रीठाकुर : जो रक्षाविधि का जितना पालन करता है वह उतनी ही रक्षा पाता है। चाहे वह नाम ले या नहीं। यदि कोई व्यक्ति पितृभक्त या मातृभक्त होता है तो वे ही उसकी सम्पदा होते हैं। उसकी बोल, चाल, भाषा, कर्म, बहुत कुछ पितृकेन्द्रिक होगी। केद्रानुग यजन, याजन और भरण उसके जीवन में मौजूद रहते हैं एवं ऐसे श्रेय अनुसरण का जो फल मिलता है उससे वह वंचित नहीं होता। फिर भी विधि अनुसार करने से ही मनुष्य को विहित फल की प्राप्ति होती है। नियमित रूप से इष्टभृति करने का फल भी अमोध होता है। इष्टभृति का अर्थ है मांगलिक यज्ञ।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृष्ट सं.-161

इष्टभृति के सम्बन्ध में श्रीश्रीठाकुर

इष्ट भरण का धंधा जिसके मस्तिष्क में लगा रहता है उसकी सारी प्रवृत्तियां इष्टार्थ विन्यस्त हो उठती हैं। समाहारी दीप्त नशा में कर्म संदीपना उस आवेग से अटूट रहकर सम्बर्द्धना लाती है। स्थविर स्नायु की स्वस्थ टान से चलनशील स्नायु भी गतिशील हो उठती है। इस आग्रह से आलस, आत्मंभरिता, आत्माभिमान और दरिद्रता दूर होती हैं। उसकी संचित बुद्धि, शक्ति, कुशलता से आपत्तिकाल में उसे बचाती है। इस तरह वह इष्टानुराग सहित संपदाओं के पथ पर चलता है।
इष्टभृति के विषय में जो कुछ कहा गया है वह कोई नयी बात नहीं है। वेद, गीता, बाइबिल, कुरान, संहिता सब ग्रंथों में इस विषय में कहा गया है। जेम्स की बातों में भी इसका आभास मिलता है। आज हिंदू संतान नित्य पञ्च महायज्ञ की बातें भूल गयी हैं। इसलिए आज दुर्दशा भी घेरे हुए है। इष्टभृति में मोटामोटी सब चीजें हैं। इसलिए यदि भली-भांति इष्टभृति का प्रसार किया जाए और वह भी भ्रातृ-भोज्य और भूतभोज्य इत्यादि सहित, --तो मनुष्य के चरित्र, कर्मदक्षता एवं योग्यता जिस तरह बढ़ेंगे उसी प्रकार गरीब-दुखियों को सहायता की व्यवस्था हो सकती है। बड़ी-बड़ी philosophy सिखाने के बजाय छोटे-छोटे दैनिक जीवन का आचरण सीखना कहीं अच्छा है। करनी के द्वारा जो ज्ञान होता है, वही ज्ञान ही कार्यकारी होता है। .... अभी समय है, अभी से ही लग जाओ। देर करने पर सबकुछ हाथ से बाहर चला जाएगा।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृ.सं.-163

Friday, May 8, 2009

प्रश्न : विपत्तियों में पड़ने पर ही पग-पग पर आपकी दया अनुभव होती है, वह कैसे?

श्री श्री ठाकुर :- परमपिता की दया तो मनुष्य पर है ही। किंतु, यजन, याजन, इष्टभृति जो करते हैं--खासकर प्रत्येक कार्य में विहीत कृतिचलन से-- वे उस दया को अधिक समझ सकते हैं और दया पाने का सुयोग भी सबसे अधिक प्राप्त करते हैं। संसार में जितनी तरह के यंत्र हैं उसमें सबसे बड़ा यंत्र मनुष्य का शरीर है। इस यंत्र को घस-मंजकर तथा तेल देकर जितना तीक्ष्ण और उपयुक्त बनाया जाए उतनी ही सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज पकड़ में आ सकती हैं। इस सूक्ष्म बोध और अनुभूति के अनुसार क्षिप्र रूप से क्रिया करने की शक्ति भी उसमें बढ़ती है। यजन, याजन, इष्टभृति एवं इष्टानुग कृती आचरण से यह सम्भव हो सकता है। मनुष्य जितना प्रवृतिमुखी होता है, उतना ही वह blunt (बोदा) और callous (बोधहीन) होता है। कहाँ क्या करना चाहिए, उसे पता नहीं चलता है, पता चलता भी है तो motor-sensory-co-ordination (बोध-प्रवाही और कर्म प्रबोधि स्नायु की संगति) नहीं रहने के कारण जहाँ जो करना समीचीन समझता है उसे वह तीव्र गति से नहीं कर पाता है। इस प्रकार वह विपत्तियों से घिर जाता है और बहुधा उससे मुक्त होने का पथ नहीं खोज पाता है। मनुष्य लाख धंधा में घूमता फिरता है किंतु इष्टधंधा की परवाह नहीं करता, उसमें किंतु उसका व्यक्तित्व विच्छिन्न हो जाता है।
इसलिए सभी को यजन, याजन, इष्टभृति में अभ्यस्त होना चाहिए। नित्य अभ्यास द्वारा सत्ता के पालन-पोषण और रक्षा करने की सामग्री चरित्र में मौजूद रहती है। यह मौजूद सामग्री ही उसे कुसमय में बचाती है। जो यजन, याजन, इष्टभृति नहीं करता है, जो सक्रिय भाव से इष्टधंधा में लगा नहीं रहता है, वहाँ समझना होगा कि अनिष्ट तथा प्रवृति उसके पीछे है और उपयुक्त समय पर अपना काम करेगी ही। इसलिए संकटकाल के सिवा बहुधा यह समझ में नहीं आता है कि किसका वास्तव सम्बल कितना है।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृ. सं.-160

मेरी बातें

मेरी बातें
विहित भाव से जो अवगत हुआ है
बोध में जो फुट उठा है--
वही दूसरों से बोलो,
जो नहीं समझते हो--
बोलने की लालसा से बोलकर
व्यतिक्रम सृष्टि करके
मनुष्य को विभ्रांत न करो,
न ख़ुद ही होओ।
--: श्री श्री ठाकुर, याजी सुक्त