Friday, May 8, 2009

प्रश्न : विपत्तियों में पड़ने पर ही पग-पग पर आपकी दया अनुभव होती है, वह कैसे?

श्री श्री ठाकुर :- परमपिता की दया तो मनुष्य पर है ही। किंतु, यजन, याजन, इष्टभृति जो करते हैं--खासकर प्रत्येक कार्य में विहीत कृतिचलन से-- वे उस दया को अधिक समझ सकते हैं और दया पाने का सुयोग भी सबसे अधिक प्राप्त करते हैं। संसार में जितनी तरह के यंत्र हैं उसमें सबसे बड़ा यंत्र मनुष्य का शरीर है। इस यंत्र को घस-मंजकर तथा तेल देकर जितना तीक्ष्ण और उपयुक्त बनाया जाए उतनी ही सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज पकड़ में आ सकती हैं। इस सूक्ष्म बोध और अनुभूति के अनुसार क्षिप्र रूप से क्रिया करने की शक्ति भी उसमें बढ़ती है। यजन, याजन, इष्टभृति एवं इष्टानुग कृती आचरण से यह सम्भव हो सकता है। मनुष्य जितना प्रवृतिमुखी होता है, उतना ही वह blunt (बोदा) और callous (बोधहीन) होता है। कहाँ क्या करना चाहिए, उसे पता नहीं चलता है, पता चलता भी है तो motor-sensory-co-ordination (बोध-प्रवाही और कर्म प्रबोधि स्नायु की संगति) नहीं रहने के कारण जहाँ जो करना समीचीन समझता है उसे वह तीव्र गति से नहीं कर पाता है। इस प्रकार वह विपत्तियों से घिर जाता है और बहुधा उससे मुक्त होने का पथ नहीं खोज पाता है। मनुष्य लाख धंधा में घूमता फिरता है किंतु इष्टधंधा की परवाह नहीं करता, उसमें किंतु उसका व्यक्तित्व विच्छिन्न हो जाता है।
इसलिए सभी को यजन, याजन, इष्टभृति में अभ्यस्त होना चाहिए। नित्य अभ्यास द्वारा सत्ता के पालन-पोषण और रक्षा करने की सामग्री चरित्र में मौजूद रहती है। यह मौजूद सामग्री ही उसे कुसमय में बचाती है। जो यजन, याजन, इष्टभृति नहीं करता है, जो सक्रिय भाव से इष्टधंधा में लगा नहीं रहता है, वहाँ समझना होगा कि अनिष्ट तथा प्रवृति उसके पीछे है और उपयुक्त समय पर अपना काम करेगी ही। इसलिए संकटकाल के सिवा बहुधा यह समझ में नहीं आता है कि किसका वास्तव सम्बल कितना है।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृ. सं.-160

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