Thursday, September 23, 2010

Kyaa Meri Avastha Nahin Badlegi?

प्रश्न : क्या मेरी अवस्था नहीं बदलेगी?  क्या मैं सुख का चेहरा देख पाऊंगा? 
श्री श्री ठाकुर : (जोर देते हुए) बदलना ही होगा!  तुम्हारे हाथ में ही सब कुछ है, और तुम्हें चिंता ही क्या है?  तुम पथ पर आ चुके हो.  परम पिता का नाम तुमने पाया, अब से यजन, याजन, इष्टभृति करो-- उनके प्रेम में अपने दुःख की बात भूल जाओ.  उनको पाया है, इतने बड़े सुख के बीच दुःख की बात क्यों दिल में पैदा होती है.  उस सुख के विषय में मनुष्य से कहो.  मनुष्य को सुखी करो, सेवा दो, जिससे मनुष्य का उपकार हो.  निकट में जो भी मिले उसे परमपिता के भाव में भरपूर बना दो....   तुमलोगों को भी दुःख और अभाव है?  मुझे इस बात पर विश्वास करने की इच्छा नहीं होती.  मुझे प्रतीत होता है कि ऐसी बातें करने का तुमलोगों का अभ्यास हो गया है, इसलिये कहते हो.  असली बात यह नहीं है.  फिर सोचता हूँ कि दुःख को ही प्रेम करते हो, उससे मुक्ति पाना नहीं चाहते, केवल मुख से कहते हो तो आखिर दुःख कैसे जाएगा?  मोटा-मोटी बात है कि सहज ह्रदय से यजन, याजन, इष्टभृति करो.   जो मनुष्य की आपत्ति-विपत्ति, दुःख-कष्ट में अपनी क्षमतानुसार करता है वह बाधा-बिघ्न से भय नहीं खाता, जो थोडा भी परिश्रमी है, जिसका स्वास्थ्य मोटा-मोटी काम चलाऊ है, वह अभाव से पीड़ित होकर हाहाकार करते हुए घूमता रहेगा, ऐसा कभी नहीं होगा.  कुछ दिनों तक ऐसे आचरण से चलने पर उसकी वह अवस्था निश्चित रूप से बदलेगी, यह बात कागज़ पर लिख सकता हूँ..... मैं सोचता हूँ, यदि एक खांटी सत्संगी किसी ग्राम में रहता है तो वह अपने ग्राम के एक व्यक्ति को भी दैन्यग्रस्त रहने क्यों देगा?  तुमने मनुष्य को कितना दैन्यमुक्त किया है, तुमलोगों से मैं उन बातों को सुनना चाहता हूँ.  यह धंधा इतना प्रबल हो जाये कि दूसरे के सामने अपना संकीर्ण स्वार्थ तुच्छ हो जाय.  सुख की बातें कर रहे थे, किन्तु दरअसल यही है सुख का प्राण.  यदि चाहो तो इसी क्षण तुम महा सुख के अधिकारी हो सकते हो?  क्या ये बातें अच्छी लगती हैं?  
जो तुमलोग करने में समर्थ नहीं होगे, उसे मैं तुमलोगों को करने नहीं कहूँगा.  लम्बी-चौड़ी दार्शनिक जैसी बातें करने का मुझे अभ्यास नहीं.  मेरी ख़ास गरज है कि तुमलोगों को सुविधा हो अन्यथा मुझे कष्ट होता है, इसलिये तो मेरे ह्रदय से ऐसी बातें निकल रही हैं.   मैंने जो कहा है, इससे बढ़कर दूसरा कोई सहज सरल पथ नहीं हो सकता, इसमें एक ही साथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं.  इसके बाद यदि कोई असमर्थ होने की बात कहता है तो मुझे कष्ट होता है.  
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, आ.प्र. -३, पृ.सं.-50  

Yajan-Yaajan Sambandhit Prashn

प्रश्न: यदि हमलोग यजन और इष्टभृति अच्छी तरह करें और याजन नियमित रूप से नहीं करें तो उसमें क्या दोष हो सकता है ?
श्री श्री ठाकुर :  याजन किये बगैर इष्ट उपभोग ही जड़वत हो उठता है.  यजन याजन की सहायता करता है और याजन यजन की सहायता करता है.  एक के अभाव में दूसरा दुर्बल हो पड़ता है.  याजन के द्वारा यदि परिवेश को धर्ममुखी नहीं बनाते हो तो तुम्हारा धर्म भी नहीं टिकेगा.  हमारे जीवन का एक प्रधान अंग है परिवेश.  जब से हम इस परिवेश के प्रति उदासीन हुए हैं तभी से हम बहुत कुछ धर्मभ्रष्ट हुए हैं.  इसलिये आज हम यह सोचते हैं कि व्यक्तिगत  रूप से जप ध्यान करने से ही धर्म होता है, उसके साथ समाज, राष्ट्र या विश्व का कोई संपर्क नहीं ?  किन्तु सर्वतोभाव से यदि बचना-बढ़ना धर्म होता है तो वह धर्म परिवेश को छोड़कर किसी भी तरह धर्म नहीं होगा!  यदि धर्म के साथ मनुष्य की सर्वांगीन जीवन-वृद्धि का कोई संपर्क न रहे तो उस धर्म के साथ मनुष्य का कोई संपर्क नहीं.  
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, आलोचना प्रसंग,  भाग-3 , पृ.सं.-7 

Thursday, May 14, 2009

प्रश्न: जिन्होंने नाम नहीं लिया है वे तो इष्टभृति नहीं करते होंगे. जिन्होंने कहीं भी दीक्षा नहीं ली है वे भी तो विपत्ति में रक्षा पाते हैं.

श्रीश्रीठाकुर : जो रक्षाविधि का जितना पालन करता है वह उतनी ही रक्षा पाता है। चाहे वह नाम ले या नहीं। यदि कोई व्यक्ति पितृभक्त या मातृभक्त होता है तो वे ही उसकी सम्पदा होते हैं। उसकी बोल, चाल, भाषा, कर्म, बहुत कुछ पितृकेन्द्रिक होगी। केद्रानुग यजन, याजन और भरण उसके जीवन में मौजूद रहते हैं एवं ऐसे श्रेय अनुसरण का जो फल मिलता है उससे वह वंचित नहीं होता। फिर भी विधि अनुसार करने से ही मनुष्य को विहित फल की प्राप्ति होती है। नियमित रूप से इष्टभृति करने का फल भी अमोध होता है। इष्टभृति का अर्थ है मांगलिक यज्ञ।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृष्ट सं.-161

इष्टभृति के सम्बन्ध में श्रीश्रीठाकुर

इष्ट भरण का धंधा जिसके मस्तिष्क में लगा रहता है उसकी सारी प्रवृत्तियां इष्टार्थ विन्यस्त हो उठती हैं। समाहारी दीप्त नशा में कर्म संदीपना उस आवेग से अटूट रहकर सम्बर्द्धना लाती है। स्थविर स्नायु की स्वस्थ टान से चलनशील स्नायु भी गतिशील हो उठती है। इस आग्रह से आलस, आत्मंभरिता, आत्माभिमान और दरिद्रता दूर होती हैं। उसकी संचित बुद्धि, शक्ति, कुशलता से आपत्तिकाल में उसे बचाती है। इस तरह वह इष्टानुराग सहित संपदाओं के पथ पर चलता है।
इष्टभृति के विषय में जो कुछ कहा गया है वह कोई नयी बात नहीं है। वेद, गीता, बाइबिल, कुरान, संहिता सब ग्रंथों में इस विषय में कहा गया है। जेम्स की बातों में भी इसका आभास मिलता है। आज हिंदू संतान नित्य पञ्च महायज्ञ की बातें भूल गयी हैं। इसलिए आज दुर्दशा भी घेरे हुए है। इष्टभृति में मोटामोटी सब चीजें हैं। इसलिए यदि भली-भांति इष्टभृति का प्रसार किया जाए और वह भी भ्रातृ-भोज्य और भूतभोज्य इत्यादि सहित, --तो मनुष्य के चरित्र, कर्मदक्षता एवं योग्यता जिस तरह बढ़ेंगे उसी प्रकार गरीब-दुखियों को सहायता की व्यवस्था हो सकती है। बड़ी-बड़ी philosophy सिखाने के बजाय छोटे-छोटे दैनिक जीवन का आचरण सीखना कहीं अच्छा है। करनी के द्वारा जो ज्ञान होता है, वही ज्ञान ही कार्यकारी होता है। .... अभी समय है, अभी से ही लग जाओ। देर करने पर सबकुछ हाथ से बाहर चला जाएगा।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृ.सं.-163

Friday, May 8, 2009

प्रश्न : विपत्तियों में पड़ने पर ही पग-पग पर आपकी दया अनुभव होती है, वह कैसे?

श्री श्री ठाकुर :- परमपिता की दया तो मनुष्य पर है ही। किंतु, यजन, याजन, इष्टभृति जो करते हैं--खासकर प्रत्येक कार्य में विहीत कृतिचलन से-- वे उस दया को अधिक समझ सकते हैं और दया पाने का सुयोग भी सबसे अधिक प्राप्त करते हैं। संसार में जितनी तरह के यंत्र हैं उसमें सबसे बड़ा यंत्र मनुष्य का शरीर है। इस यंत्र को घस-मंजकर तथा तेल देकर जितना तीक्ष्ण और उपयुक्त बनाया जाए उतनी ही सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज पकड़ में आ सकती हैं। इस सूक्ष्म बोध और अनुभूति के अनुसार क्षिप्र रूप से क्रिया करने की शक्ति भी उसमें बढ़ती है। यजन, याजन, इष्टभृति एवं इष्टानुग कृती आचरण से यह सम्भव हो सकता है। मनुष्य जितना प्रवृतिमुखी होता है, उतना ही वह blunt (बोदा) और callous (बोधहीन) होता है। कहाँ क्या करना चाहिए, उसे पता नहीं चलता है, पता चलता भी है तो motor-sensory-co-ordination (बोध-प्रवाही और कर्म प्रबोधि स्नायु की संगति) नहीं रहने के कारण जहाँ जो करना समीचीन समझता है उसे वह तीव्र गति से नहीं कर पाता है। इस प्रकार वह विपत्तियों से घिर जाता है और बहुधा उससे मुक्त होने का पथ नहीं खोज पाता है। मनुष्य लाख धंधा में घूमता फिरता है किंतु इष्टधंधा की परवाह नहीं करता, उसमें किंतु उसका व्यक्तित्व विच्छिन्न हो जाता है।
इसलिए सभी को यजन, याजन, इष्टभृति में अभ्यस्त होना चाहिए। नित्य अभ्यास द्वारा सत्ता के पालन-पोषण और रक्षा करने की सामग्री चरित्र में मौजूद रहती है। यह मौजूद सामग्री ही उसे कुसमय में बचाती है। जो यजन, याजन, इष्टभृति नहीं करता है, जो सक्रिय भाव से इष्टधंधा में लगा नहीं रहता है, वहाँ समझना होगा कि अनिष्ट तथा प्रवृति उसके पीछे है और उपयुक्त समय पर अपना काम करेगी ही। इसलिए संकटकाल के सिवा बहुधा यह समझ में नहीं आता है कि किसका वास्तव सम्बल कितना है।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृ. सं.-160

मेरी बातें

मेरी बातें
विहित भाव से जो अवगत हुआ है
बोध में जो फुट उठा है--
वही दूसरों से बोलो,
जो नहीं समझते हो--
बोलने की लालसा से बोलकर
व्यतिक्रम सृष्टि करके
मनुष्य को विभ्रांत न करो,
न ख़ुद ही होओ।
--: श्री श्री ठाकुर, याजी सुक्त