इष्ट भरण का धंधा जिसके मस्तिष्क में लगा रहता है उसकी सारी प्रवृत्तियां इष्टार्थ विन्यस्त हो उठती हैं। समाहारी दीप्त नशा में कर्म संदीपना उस आवेग से अटूट रहकर सम्बर्द्धना लाती है। स्थविर स्नायु की स्वस्थ टान से चलनशील स्नायु भी गतिशील हो उठती है। इस आग्रह से आलस, आत्मंभरिता, आत्माभिमान और दरिद्रता दूर होती हैं। उसकी संचित बुद्धि, शक्ति, कुशलता से आपत्तिकाल में उसे बचाती है। इस तरह वह इष्टानुराग सहित संपदाओं के पथ पर चलता है।
इष्टभृति के विषय में जो कुछ कहा गया है वह कोई नयी बात नहीं है। वेद, गीता, बाइबिल, कुरान, संहिता सब ग्रंथों में इस विषय में कहा गया है। जेम्स की बातों में भी इसका आभास मिलता है। आज हिंदू संतान नित्य पञ्च महायज्ञ की बातें भूल गयी हैं। इसलिए आज दुर्दशा भी घेरे हुए है। इष्टभृति में मोटामोटी सब चीजें हैं। इसलिए यदि भली-भांति इष्टभृति का प्रसार किया जाए और वह भी भ्रातृ-भोज्य और भूतभोज्य इत्यादि सहित, --तो मनुष्य के चरित्र, कर्मदक्षता एवं योग्यता जिस तरह बढ़ेंगे उसी प्रकार गरीब-दुखियों को सहायता की व्यवस्था हो सकती है। बड़ी-बड़ी philosophy सिखाने के बजाय छोटे-छोटे दैनिक जीवन का आचरण सीखना कहीं अच्छा है। करनी के द्वारा जो ज्ञान होता है, वही ज्ञान ही कार्यकारी होता है। .... अभी समय है, अभी से ही लग जाओ। देर करने पर सबकुछ हाथ से बाहर चला जाएगा।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग -3, पृ.सं.-163
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